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|| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् ||

भगवान श्री विष्णु के एक हजार नामों की महिमा अवर्णनीय है। इन नामों का संस्कृत रूप विष्णुसहस्रनाम के प्रतिरूप में विद्यमान है। विष्णुसहस्रना...

॥ पितृ तर्पण ॥

पितृ-पक्ष पितृ तर्पण विधि

‘आश्विन’ या ‘कुआर’ मास का पहला कृष्ण-पक्ष ‘पितृ-पक्ष’ के नाम से जाना जाता है। इन 15 दिनों में अन्य किसी भी देवी या देवता की पूजा, विवाहादि शुभ कार्य निषेध हैं। इस समय में केवल पितृों का आवाहन कर तर्पण किया जाता है। संसार में पूर्वजों की पुण्य स्मृति को सुरक्षित रखने की ऐसी सटीक परम्परा मिलनी दुर्लभ है।

आधुनिक युग में प्राचीन संस्कृति, राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव, पारिवारिक सुख-शांति की सुरक्षा की आवश्यकता कितनी तीव्रता से अनुभव की जा रही है, यह प्रत्यक्ष ही है। इन सभी को पितृ-पक्ष की भावना से बल मिलता है।

पित-पक्ष में 15 दिनों तक प्रति-दिन पितरों का तर्पण जो किया जाता है, वह है क्या? थोड़ा ध्यान देने से उसके महत्व का अनुभव किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने ‘स्वर्गीय पिता, पितामह, प्रपितामह और स्र्वगीय मातामह, प्रमातामह और वृद्ध प्रमातामह’ आदि के नामों का उच्चारण कर उनके प्रति जलांजलि देनी होती है। साथ ही इन सभी पूर्वजों की धर्म-पत्नियों के भी नामों का उच्चारण कर उन्हें भी जलांजलि अर्पित करनी होती है अर्थात् एक ओर अपनी ‘स्वर्गीय माता, पितामही और प्रपितामही’ आदि को, तो दूसरी ओर अपनी स्वर्गीय मातामही, प्रमातामही और वृद्ध-प्रमातामही का स्मरण कर उन्हें जल से तृप्त करना होता है।

इस प्रकार दो परिवारों की तीन पीढ़ीयों के दम्पत्तियों का सादर स्मरण करने से उन ‘परिवारों के इतिहास’ की स्मृति सहज ही जागृत होती है और उससे अनूठी प्रेरणा मिलती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त नामोच्चारण कोरा नहीं किया जाता, नामों के साथ उनके गोत्र का भी उच्चारण किया जाता है। गोत्र अर्थात् उस ऋषि का नाम जिससे उस परिवार का प्रचलन हुआ है। 
उक्त पद्धति के अनुसार विचार करें- यदि किसी व्यक्ति के पुत्र है, तो अपनी और अपनी माता की तीन पीढ़ियों का स्मरण करेंगे अर्थात् उस व्यक्ति को अपने निजी परिवार, अपनी माता के परिवार और पुत्र के माध्यम से अपनी पत्नी के परिवार तीन परिवारों का इतिहास स्मरणीय बना रहेगा। संस्कृति, इतिहास और परम्परा को सुरक्षित रखने का यह कितना अचूक विधान है।

यही नहीं, जिन परिवारों के पूर्वजों का स्मरण इस प्रकार श्रद्धा-पूर्वक किया जाता रहेगा, उनके वर्तमान वंशजों में प्रति-भाव की वृद्धि सहज ही होती रहेगी। इसमें विविध परिवारों में सद्भाव स्थापित होने से पूरे समाज में एकता की भावना विकसित होगी, जो प्रसारित होकर सारे देश-वासियों को एक सूत्र में आबद्ध कर सकेगी।

आजकर ‘पितृ-यज्ञ’ की उक्त भावना का लोप हो जाने के कारण ही पति-पत्नि, पिता-पुत्र में मनो-मालिन्य की वृद्धि हो रही है। यदि परिवार में अपने सम्बन्धियों का स्मरण प्रति-दिन श्रद्धा से होता रहे, तो पारस्परिक सद्भाव में कमी आ ही नहीं सकती। यह तथ्य एक साधारण पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी समझ सकता है।  

‘हिन्दूओं की पोथी’ में पितृ-यज्ञ की जो विधि लिखी है उससे स्पष्ट है कि पितरों की यह पूजा कितनी सरल और सस्ती है।

पितरों की पूजा की सामग्री में ‘कुशा- नामक घास, तिल, जौं, अक्षत, फूल और तुलसी की पत्तियाँ तथा शुद्ध जल जैसी वस्तुएँ हैं, जिनमें किसी को कोई विशेष खर्च नहीं करना है।

‘पूजा की विधि’ भी सर्वथा सहज है, केवल नामों का उच्चारण करना है और जल छोड़ना है। मिनट का समय लगता है। इतने अल्प समय में न केवल पूरे सामाज का इतिहास अपने ध्यान में आ जाता है, अपितु प्रमुख देवताओं और ऋषियों के नाम भी कण्ठस्थ हो जाते हैं क्योंकि पितृ-यज्ञ शब्द ऋग्वेद में आया है। यह तीन प्रकार से सम्पादित होता है- तर्पण, बलि एवं प्रति-दिन श्राद्ध
मनु के मत से प्रतिदिन देवों, ऋषियों एवं पितरों का तर्पण करना चाहिए अर्थात् जल देकर उन्हें परितुष्ट करना चाहिए।   

पितृ-पक्ष के 15 दिनों की अवधि में माता और पिता जब दोनों पक्षों के दिंगत पूर्वजों का स्मरण करते समय हमें यह भी जानना चाहिए की पूजनीय पितरों के लिए भारतीय ऋषियों ने ‘पितृ-लोक’ की भी अनूठी कल्पना की है। यह ‘पितृ-लोक’ अन्य देव-लोकों-विष्णु-लोक, शिव-लोक, ब्रहम-लोकादि से उच्च माना गया है। पितृ-लोक में पहुंचने वाली आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता, जबकि अन्य लोकों में पहुंचने वाली आत्माओं को पुण्य-भोग के पुनः जन्म लेना पड़ता है।

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