सप्त
महाविद्या भगवती धूमावती से उद्भूत विश्व के संरक्षक भगवान विष्णु का तीसरा अवतार।
जयन्तीः- अश्विन
शुक्ला सप्तमी
समुद्र-कांची
सरिदुत्तरीया, वसुन्धरा
मेरु-किरीटभारा।
दंष्ट्रागतो
येन समद्धृता भूस्तमादिकोलं शरणं प्रपद्ये।।
अर्थात् समुद्रों को करधनी, सुमेरु को मुकुट एवं नदियों
को उत्तरीय के रूप में धारण करने वाली पृथिवी को जिन्होंने अपने दन्ताग्र पर धारण
किया था, मैं
उन्हीं वराहावतार भगवान विष्णु की शरण लेता हूँ।
त्रयो-त्रिंशत्यक्षर- ‘श्री वराहावतार’ नाम मन्त्र साधना
नाम-महात्म्य-महाविद्या
धूमावी से उद्भूत श्री वराहा विग्रह भगवान विष्णु के नाम मंत्र-जप से सभी प्रकार
की बाधाएं दूर होती हैं तथा सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है।
विनियोगः-ऊँ अस्य
श्री वराहवतार त्रयों-त्रिंशत्यक्षर-मंत्रस्य श्री भार्गव ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्री आदि-वराह देवता, मम सर्व कामना सिद्धयर्थे
जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः-
शिरसि
श्रीभार्गव ऋषये नमः।
मुखे
अनुष्टुप-छन्दसे नमः।
हृदयादि
वराहाय देवतायै नमः।
मम
सर्वकामना सिद्धयर्थे जपे विनियोगः नमः अञजलो।
करन्यासः-
एक
दंष्ट्राय अंगुष्ठाभ्याम् नमः।
व्योम
केशाय तर्जनीभ्याम् नमः।
तेजोऽधिपतये
मध्यमाभ्याम् नमः।
विश्वरूपाय
अनामिकाभ्याम् नमः।
महादंष्ट्राय
कनिष्ठाभ्याम् नमः।
षडंगन्यासः-
एक
दंष्ट्राय हृदयाय नमः।
व्योम
केशाय शिरसे स्वाहा।
तेजोऽधिपतये
शिखायै वषट्।
विश्वरूपाय
कवचाय हुम्।
महादंष्ट्राय
नेत्रत्रयाय अस्त्राय फट्।
ध्यानम्
आपादं-जानु-देशाद
वर-कनक-निभं, नाभि-देशादधस्तान्मंक्ताभं, कण्ठ-देशात् तरुण-रवि-निभं, मस्तकान्नीलभासम्।
ईड़े
हस्तैर्दधानं रथ-चरण-दशै खड्ग-खेटौ गदाख्यम्।
शक्तिं
दानोभये च क्षिति-धरण-लसद् दंष्ट्रमाद्यं वराहम्।।
अर्थात् भगवान् वराह के जानु-देश से लेकर पैरों तक का शरीर
स्वर्ण-जैसा, नाभि-देश से नीचे जानु-देश तक
का मोती जैसा-कण्ठ-देश से नाभि-देश तक का युवा-सूर्य जैसा और शिरो देश से कण्ठ-देश
तक नील-वर्ण है। वे हाथों में शंख, चक्र, खड्ग, खेटक, गदा, शक्ति, वर-मुद्रा और अभय-मुद्रा धारण किए हैं। दाँतों पर धरती शोभायमान
है। ऐसे आदि-वराह भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ।
ध्यान् के पश्चात् मानस
पूजन करें।
मंत्रः- ऊँ नमों
भगवते वराह-रुपाय भूर्भवः स्वः-पतये भू-पतित्वं में देहि ददापय स्वाहा। (33 अक्षर)
जप-विधानम्
भाद्रपद
शुक्लाष्टमी को एक श्वेत शिला (पत्थर) लेकर, पंचगव्य (1 गो-दुग्ध, 2 गो-दधि, 3 गो-घृत, 4 गो-मय, 5 गो-मूत्र) में उसे रक्खें।
उस शिला को स्पर्श करते हुए उक्त मन्त्र का 10,000 बार जपें। जप के पशचात् उत्तर-मुख होकर उक्त शिला
को पृथिवी में गाड़ देवें। ऐसा करने से शत्रु-कृत, चैर-कृत या महा-भूत-कृत समस्त बाधाएँ दूर होती
हैं।
होम- घृत, शहद, शक्कर से युक्त पद्म पुष्पों
से होम करें, तो सभी
कामनाओं की सिद्धि होती है। राज-वृक्ष (सोमालू) की समिधा से होम करें तो सभी
प्रकार की सम्पत्ति प्राप्त होवे। शालि(चावल) से होम करें तो घर धान्य-भण्डार से
भर जाता है। केवल घृत से होम करने से एक मण्डल (49 दिन) के भीतर स्वर्ण लाभ होता है।
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