यह स्तोत्र प्रबल शत्रु संहार कारक है। यह स्तोत्र बहुत ही उग्र है अतः भैरव पूजन, भोग, दीपदान, बलिदान प्रयोग करके नित्य शांति पाठ अवश्य करें।
हन-हन दुष्टन को, प्राणनाथ हाथ गहि, पटकि मही-तल मिटाओ सब शोक को।
हमें जो सतावे जन, काम-मन-वाक्यन ते, बार बार तिनको पठाओ यमलोक को।
वाकोघर मसान करौ संसत श्रृगाल रोवैं, रूधिर कपाल भरो उर शूल चोक को।
भैरो महाराज! मम काज आज एही करौ, शरण तिहारो वेग माफ करो चूक को।
भल-भल करे ओ विपक्षी पक्ष, आपनो टरे न टारे, काहू के त्रिशूल दण्ड रावरो।
घेरि-घेरि छलिन छकाओ, छिति छल मांहि बचै नाहीं, नाती-पूत सहित स पांवरो।
हेरि-हेरि निन्दक सकल निरमूल करो, चूसि लेहु रूधिर रस धारो शत्रु सागरो।
झटपटि-झटपटि झूमि-झूमि काल दण्ड मारो, जाहि यमलोक वैरि वृन्द को विदा करो।
झटपटि के सारमेय पीठ पै सवार होहु, दपटि दबाओ तिरशूल, देर ना करो।
रपटि-रपटि रहपट एक मारो, नाथ! नाक से रूधिर गिरै, मुण्ड से व्यथा करो।
हरषि निरखि यह काम मेरो, जल्दी करो सुनि के कृपानिधान भैरोजी! कृपा करो।
हरो धन-दार-परिवार, मारो पकरिके, बचे सौ बहि जाइ नदी नार जा मरो।
जाहि जर-मूर से रहे ना वाके बंस कोई, रोइ-रोइ छाती पीटै, करै हाइ-हाइ के।
रोग अरू दोष कर, प्राणी विललाइ, वाके कोई न सहाइ लागै, मरै धाइ-धाइ के।
खलन खधारि, दण्ड देहु दीनानाथ! मैं तो परम अनाथ, दया करो आइ-आइ के।
जनम-जनम गुन गाइ के बितैहों दिन, भैरो महाराज! वैरी मारो, जाइ-जाइ के।
रात-दिन पीरा उठै, लोहू कटि-कटि गिरे, फारि के करेजा ताके बंस में समाइ जा।
रिरिकि-रिरिकि मरे, काहू को उपाय कछू लागै नाहीं एको जुक्ति, हाड़ मांस खाइ जा।
फिरत-फिरत फिरि आवै, चाहे चारों ओर यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र को प्रभाव विनसाइ जा।
भैरो महाराज! मम काज आज एहि करौ, शत्रुन के मारि दुःख दुसह बढ़ाइ जा।
झट-झट पेट चीर, चीर के बहाइ देह, भूत औ पिशाच पीवैं रूधिर अघाइ कै।
रटि-रटि कहत सुनत नाहीं, भूतनाथ! तुम बिनु कवन सहाय करै आइ कै।
भभकि-भभकि रिपु तन से रूधिर गिरे, चभकि-चभकि पिओ कुकुर लिआइ कै।
हहरि-हहरि हिआ फाटै सब शत्रुन को, सुनहु सवाल हाल कासो कहैं जाइ कै।
जरै ज्वर-जाल-काल भृकुटि कराल को, शत्रुन की सेखि देखि जात नहीं नेक हूं।
तेरी है विश्वास, त्रास एको नहीं काहू केर लागत हमारे, कृपा-दृष्टि कर देख हूं।
भैरो! उनमत्त ताहि कीजिए, उनमत्त आज गिरै जम-ज्वाल-नदी जल्दी से फेंक हूं।
यम कर दूत जहां भूत-सम दण्ड मारै, फूटे शिर, टूटे हाड़, बचै नाहीं एक हूं।
हवकि-हवकि मांस काटि दांतन से, बोटि-बोटि वीरन के, नवो नाथ खाइ जा।
भूत-वेताल ववकारत, पुकार करै, आज नर-रूधिर पर वहै आइ जा।
डाकिनी अनेक डउकारैं, सब शत्रुन के रूधिर कपाल भरि-भरि के पिआइ जा।
भैरो भूतनाथ! मेरो काज आज एहि करो, दुर्जन के तन-धन अबहीं नसाइ जा।
शत्रुन संहार आज, अष्टक बनाए आज, षट-जुग ग्रह शशि सम्वत् मेें सजि कै।
फागुन अजोरे पाख, वाण तिथि, सोमवार, पढ़त जो प्रातः काल उठि नींद तजि कै।
शत्रुन संहार होत, आपन सब काज होत, सन्तन सुतार होत, नाती-पूत रजि कै।
कहे गुरूदत्त तीनि मास, तीनि साल महं, शत्रु जमलोक जैहे बचिहै न भजि कै।